top of page
Search

ॐ श्री परमात्मने नमः Hindi (Lesson 1st & 2nd)

  • Sanjay Bhatia
  • Mar 9, 2017
  • 14 min read

पहले अध्याय के श्लोकों में धृतराष्ट्र बोले : हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?(१-श्लोक)संजय बोले: उस समय राजा दुर्याधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवो की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।(२-श्लोक)हे आचार्य ! आप के बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये। (३-श्लोक) इस सेना में बड़े-बड़े धनुषयवाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिमोज और मनष्यों में श्रेष्ट शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचो पुत्र ये सभी महारथी है।(४,५ ,६-श्लोक) हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान है, उनको आप समझ लीजिये। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो - जो सेनापति है, उनको बतलाता हूँ। (७ श्लोक) आप, द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और सग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत का पुत्र भुरिश्रवा। (८- श्लोक)और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देनेवाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के अस्त्रो - शास्त्रो से सुसज्जित और सब के सब युद्ध में चतुर है। (९ -श्लोक)भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना जीतने में सुगम है। (१०-श्लोक) इसलिए सब मौर्चो पर अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करे। (११-श्लोक) कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया। (१२-श्लोक) इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृन्दग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ। (१३ -श्लोक) इसके अनन्तर सफेद घोड़ो से युक्त उत्तम रथ में बेठै हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये। (१४-श्लोक) श्रीकृष्ण महराज ने पंचजन्य नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पुण्ड्र नामक महाशंख बजाया। (१५-श्लोक) कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ट्रर ने अनन्तविजयनामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पकनामक शंख बजाए। (१६ -श्लोक) श्रेष्ट धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टधुम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रुपदी के पाचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु इन सभी ने, हे राजन! सब ओर से अलग अलग शंख बजाये। (१७-१८ श्लोक)और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुजते हुए ध्रतराष्ट्र के अथार्थ आपके पक्ष वालो के ह्रदय विदीर्ण कर दिये।हे राजन ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र सम्बन्धियो को देखकर, उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकरबोला (१९-२० श्लोक)कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र सम्बन्धियो को देखकर, उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ह्रषिकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा : हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये। (२१) और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी युद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्धरूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये। (२२) दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहनेवाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए है, इन युद्ध करनेवालों को मैं देखूगा। (२३) संजय बोले : हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओ के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवो को देख (२४ /२५ ) इस के बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ - चाचो को, दादों -परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रो को तथा मित्रों को, ससुरो को और सुह्र्दो को भी देखा। उन उपस्तिथ सम्पूर्ण बंधुओ को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले (२६,२७) अर्जुन बोले : हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे है और मुख सूखा जा रहा है तथा शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है। (२८, २९) हाथ में गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित - सा हो रहा है, इस लिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नही हूँ (३०) हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नही देखता। (३१ ) हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य से कोई प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? (३२) हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े है। (३३) गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग है। (३४) हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनो लोको के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नही चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है ? (३५) हे जनार्दन ! धृष्टराष्ट्र के पुत्रो को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आतातियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। (३६) अतएव हे माधव ! अपने हे बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नही है, क्योकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होगे ?(३७) यधपि लोभ से भ्रष्ट चित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नही देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नही विचार करना चाहिये। (३८,३९) कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते है, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है। (४०) हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यंत दूषित हो जाती है और हेवाष्णैय ! स्त्रियो के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उन्पन्न होता है. (४१) वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले यानि श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पित्ररलोग भी अधोगति को प्राप्त होते है। (४२) इन वर्णसंकरकारक दोषों कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाता है (४३) हे जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए है। (४४) हा ! शोक हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए है , जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्धत हो गए है।( ४५) यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवाले को शास्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा। ४६) संजय बोला : रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कह कर, बाणसहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग पर बैठ गए। (४७)


सांख्ययोग

दूसरा अघ्याय

जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल आप ने दूसरे अध्याय में पढ़ा संजय बोले : उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आंसुओ से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रो वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा। (१) श्रीभगवान बोले: हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ ? क्योकि न तो यह श्रेष्ट पुरुषो द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है। इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो,तुझ में यह उचित नही जान पड़ती। हे परंतप ! ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा। (२,३) अर्जुन बोला : हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लडूंगा ? क्योकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पुजनीय है। (४) इसलिए इन महानुभाव गुरुजनो को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी कहना कल्याणकारक समझता हूँ। क्योकि गुरुजनो को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा। (५) हम यह भी नही जानते की हमारे लिए युद्ध करना और न करना इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ट है, अथवा यह भी नही जानते कि उन्हें हम जीतगे या हमको वे जीतेगे और जिनको मारकर हम जीना भी नही चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र है, हमारे मुकाबले में खड़े है। (६) इसलिए कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो वह मेरे लिए कहिये , क्योकि मैं आप का शिष्य हूँ , इसलिए आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिये। (७) क्योकि भूमि में निष्कपट,धन -धान्यसम्पन्न राज्य को और देवताओ के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नही देखता हूं, जो मेरी इद्रियों को सूखनेवाले शोक को दूर कर सके। (८) संजय बोला: हे राजन ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कह कर फिर श्रीगोविन्द भगवन से "युद्ध नही करूँगा" यह सपष्ट कहकर चुप हो गए। (९) हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओ के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए -से यह वचन बोला। (१०)श्रीभगवान बोले : हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितो के जैसे वचनों को कहता है, परंतु जिनके प्राण चले गए है उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गए है उनके लिये भी पण्डित जन शोक नही करते। (११) न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नही था, तू नही था अथवा ये राजा लोग नही थे और ना ऐसे ही है कि इससे आगे हम सब नही रहेगे। (१२) जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्ता होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नही होता। (१३) हे कुंतीपुत्र ! सर्दी गर्मी और सुख-दुःख को देनेवाला इंन्द्रिय और विषयो के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत ! उसको तू सहन कर। (१४) क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ट दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रीयाँ और विषयो के संयोग व्याकुल नही करते, वह मोक्ष के योग्य होता है। (१५) असत वस्तु की तो सत्ता नही है और सत् का आभाव नही है इसप्रकार तत्वज्ञानी पुरुषो इन दोनों का ही तत्व देखा गया है। (१६) नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत दृश्येवर्ग व्याप्त है। इस अवनाशी का विनाश करने कोई भी समर्थ नही है। (१७) इस नाशरहित, अप्रमये, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए है। इसलिए हे भरत वंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर। (१८) जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नही जानते, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है। (१९) यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य,सनातन और पुरातन है। शरीर के मरे जाने पर भी यह नही मारा जाता है। (२०)हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ? (२१) जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रो को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रो को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरो को प्राप्त होती है (२२) इस आत्मा को शास्त्र काट नही सकते इस को आग जला नही सकती , इसको जल गला नही सकता और वायु सूखा नही सकती (२३) क्योंकि वह आत्मा अच्छेध है, यह आत्मा अदाह्य, अकलेध और निःसंदेह अशोष्य है तथा ये आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है। (२४) यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्तय है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने को योग्य नही है अर्थात तुझे शोक करना उचित नही है। (२५) किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मारने वाला मानता है, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नही है (२६) क्योंकि इस मन्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है इस से भी इन बिना उपायवाले विषय में तू शोक करने के योग्य नही है। (२७) हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले है, केवल बीच में ही प्रकट है फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है (२८) कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नही जानता। (२९) हे अर्जुन ! यह आत्मा सब के शरीरो में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नही है। (३०) श्री भगवान अर्जुन से कहते है तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नही है अर्थात तुझे भय नही करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्त्तव्य नही है। (३१) हे पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते है। (३२) किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नही करेगा तो स्वधर्म और के कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। (३३) तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहनेवाली अपकीर्ति का भी कथन करेगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है। (३४) और जिनकी दृस्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा। वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेगे। (३५) तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेगे। उससे अधिक दुःख और क्या होगा। (३६) या तो तू युद्ध में मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा। (३७) जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझ कर उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा इस प्रकार करने से तू पाप को प्राप्त नही होगा। (३८) हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन, जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मो के बंधन को भलीभांति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा। (३९) इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात बीज का नाश नही है और उल्टा फलरूप दोष भी नही है , बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म -मृत्युरूप महान भय से रक्षा कर लेता है। (४०)हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियां निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनंत होती है। (४१) हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे है, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते है , जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम् प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नही है - ऐसा कहनेवाले है, वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात देखाउ शोभायुक्त वाणी को कहा करते है जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवम भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत - सी क्रियाओ का वर्णन करनेवाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित हर लिया गया है जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त है उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिक बुद्धि नहीं होती। (४२,४३,४४) हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगो एवं उनके साधनो का प्रतिपादन करनेवाले है, इसलिए तू उन भोगो एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष -शोकादि द्वंदों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग-क्षेम को न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो (४५) सब और से परिपूर्ण जलाशय की प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानेवाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है। (४६) तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उन के फलो में कभी नही इसलिय तू कर्मो के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। (४७) हे धनंजय ! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्त्तव्य कर्मो को कर, समत्वभाव ही योग कहलाता है। (४८) इस समत्व रूप बुद्धियोग सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल के हेतू बनानेवाले अत्यंत दीन है। (४९) समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा। यह समत्व रूप योग ही कर्मो में कुशलता है अर्थात कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है (५०) श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा : क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मो से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निरविकार परमपद को प्राप्त हो जाते है। (५१) जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगो से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा। (५२) भांति - भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी , तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा। (५३) अर्जुन बोले: हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? (५४) श्रीभगवान बोले : हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओ को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। (५५) दुःखो की प्राप्ति होने पर जिस के मन में उद्विग्न नहीं होता सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्प्रह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए है ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। (५६) जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस - उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है। (५७) और जैसे कछुवा सब और से अपने अंगो को समेट लेता है वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयो से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए। (५८) इन्द्रियों के द्वारा विषयो को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते है , परंतु उनमे रहने वाली आसक्ति निवृत नही होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है। (५९) हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथनस्वभाव वाली इंद्रिया यत्त्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात हर लेती है। (६०) इसलिए साधक को चाहिए वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है। (६१) विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयो की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। (६२) क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति सी गिर जाता है। (६३) परंतु अपने अधीन किये गए अन्तःकरणवाले साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयो में विचरण करना हुआ अन्तःकरण की प्रसंनता को प्राप्त होता है। (६४) अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुखों का आभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में हे भलीभांति स्थिर हो जाती है। (६५) न जीते हुए मन और इंद्रियोवाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नही होती तथा भावनाहीन मुनष्य को शांति नही मिलती और शातिरहित मुनष्य को सुख कैसे मिल सकता है ? (६६) क्योंकि जैसे जल में चलनेवाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयो में विचरती हुए इन्द्रियों में से मन जिस इंद्रियों के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ,(६७) इसलिए हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इंद्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई है, उसीकी बुद्धि स्थिर है। (६७) सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जानता है और जिन नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते है, परमात्मा के तत्व को जाननेवाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है। (६९) जैसे नाना नदियों के जल सब और से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुंद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते है वैसे हे सब भोग जिस स्थितपज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना हे समा जाते है, वही पुरुष परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगो को चाहनेवाला नही। (७०) जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओ को त्यागकर समतारहित, अहंकाररहित और स्पृहा रहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शांति को प्राप्त है। (७१) हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्तिथि है। इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नही होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्तिथि में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है। (७२)


 
 
 

Comments


shrimadhbhagwatgeeta

Follow

Contact

9215846999, 8708529941

Address

Jaggi Colony,Ambala, Haryana, India

©2017 BY SHRIMADHBHAGWATGEETA. PROUDLY CREATED WITH WIX.COM

bottom of page