ग्यारवाँ अध्याय : विश्वस्वरूपदर्शनयोग
- Sanjay Neetu
- Jul 10, 2017
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अर्जुन उवाच ---
कहा फिर यह अर्जुन ने ऐ मोहतरिम,
किया आप ने मुझ पे लुत्फ़-ओ करम।
बताया ख़फ़ी अध्यात्म का राज़,
गया मोह आँखें हुई दिल की बाज़। (१)
कंवल-नैन ! मैंने सुना आप से,
कि अजसाम किस तरह पैदा हुए।
जो पैदा हुए होंगे क्योंकर फ़ना,
तुम्हीं को है अज़मत तुम्हीं को बक़ा। (२)
किया आपने हाल जो कुछ बयाँ,
वही सच हैं परमेशवर बेगुमाँ।
है पुरुषोत्तम अब इश्तियाक इस कदर,
कि दीदार-ए हक़ देख लूँ इक नज़र। (३)
प्रभु आप का हो अगर यह ख़याल,
कि दर्शन की हैं मुझ को ताब-ओ मजाल।
तो योगेशवर लुत्फ़ फरमाइये,
मुझे ला-फ़ना रूप दिखलाइये। (४)
श्रीभगवानुवाच --
कर अर्जुन नज़र देख मेरे सरूप,
मेरे सैकड़ो और हज़ारों हैं रूप।
मेरी पाक हस्ती के नीरंग देख,
नये रूप देख और नये ढंग देख। (५)
वसु रूद्र आदित्य की सूरते,
दो अशिवनी भी मारुत की भी मूरतें।
तो भारत के फ़रज़न्द सब देख ले,
जो देखा नहीं तूने अब देख ले। (६)
जो कुछ चाहे तो देख तन में मेरे,
जहाँ सब है अर्जुन बदन में मेरे।
यहीं सारा आलम नमूदार देख,
तू साकिन भी देख और सय्यार देख। (७)
मेरी दीद गर तुझ को मनज़ूर हैं,
तेरी आँख का कब यह मक्दूर हैं।
मैं देता हूँ तुझ को ख़ुदाई बसर,
मेरे इस शही योग पर कर नज़र। (८)
संजय उवाच ---
महाराज ! अर्जुन से कह कर यह बात,
हरि यानी योगेश्वर पाक ज़ात।
दिखाने लगे शान-ए आली का रूप,
तो अर्जुन ने देखा खुदाई सरूप। (९)
अनेक उस के बाहें तो चेहरे अनेक,
निगाहे अनेक उन में जलवे अनेक।
अनेक उस के पुरनूर ज़ेवर सजे,
खुदाई वो हथियार उभरे हुए। (१०)
ख़ुदाई वो कण्ठे ख़ुदाई लिबास,
ख़ुदाई उबटने ख़ुदाई वो बास।
वो लाइन्तहाई खड़ी रूबरू,
जो रुख़ उसका देखो तो रुख़ चार-सू। (११)
फ़लक पर निकल आये सूरज हज़ार,
बा-यक वक़्त मिलकर हों सब नूर बार।
तो धुन्धली से समझो तुम उस की मिसाल,
महा-आत्मा का था इतना जलाल। (१२)
जो अर्जुन ने देखा कि जलवा नुमा,
हैं सब देवताओं का वो देवता।
उसी के तन-ए पाक में है अयाँ,
गिरोहों में गल्लों में सारा जहाँ। (१३)
तो अर्जुन को इस दरजा हैरत हुई,
कि सहमा डरा और लगी कंपकपी।
हज़ूर-ए ख़ुदावन्द में सर झुका,
वो यूं हाथ जोड़ कर कहने लगा। (१४)
अर्जुन उवाच --
तुम्हारे पीकर देव भगवान्,
देवता सब समा रहे हैं,
अनेक रङ्गोे में जीव सारे,
ग्रोह बन-बन के आ रहे हैं।
कमल के आसन पे आप ब्रह्मा,
विराजमाँ हैं तुम्हारे अन्दर,
ऋषि हैं या नाग आसमानी,
सब अपनी सूरत दिखा रहे हैं। (१५)
अनेक बाज़ू अनेक चेहरे,
शिकम अनेक और अनेक आँखे,
अनंत रूपी तुम्हारे जलवे,
दसों दिशाओं में छा रहे हैं।
तुम्हारा अव्वल है और न आख़िर,
न दरम्याँ है कोई तुम्हारा,
यह विश्वरूपी जहाँ के मालिक,
तुम्हीं में आलम समा रहे हैं। (१६)
मुकुट है पुरनूर गुरज भी पुरनूर,
उस पे चक्कर है शोला अफशां,
चमक रहे हैं दमक रहे हैं,
जहाँ को भी जगमगा रहे हैं।
हो जिस तरह आग शोला आफ़शां,
हो जैसे सूरज कारूब-ए ताबाँ,
वो अपनी लाइन्तहा चमक से,
जहाँ को खैरह बना रहे हैं। (१७)
तुम्ही हो बरतर भी लफ़ना भी,
तुम्ही सज़ावार-ए इल्म ओ उरफाँ,
तुम्हीं हो बेइख्ताम मख़जन,
वह जिस में आलम समा रहे हैं।
तुम्हीं क़दीमी पुरुष हो भगवान्,
पुरुष वो जिस को फ़ना नहीं है,
जो लाफ़ना धर्म है उसे भी,
तुम्हारे अहसाँ बचा रहे हैं। (१८)
न इब्तदा से न इन्तहा से,
न वस्त से वास्ता है तुम को,
तुम्हारे लाइन्तहा हैं बाज़ू,
जो जोर-ओ ताकत दिखा रहे हैं।
तुम्हारी आँखें हैं चाँद-सूरज,
तुम्हारा चेहरा हवन की अग्नि,
तुम्हारे जलवे हैं शोला आफ़शां,
जो कुल जहां को तपा रहे हैं। (१९)
जमी में जलवा, समा में जलवा,
और उन के अन्दर खला में जलवा,
दसों दिशाओं में ईश्वर सब,
तुम्हारे जलवे समा रहे हैं।
महात्मा हैं तुम्हारी सूरत,
वह जिस से बरसे जलाल-ओ हीबत,
कि तीनों दुनिया के रहने वाले,
लरज रहे थरथरा रहे हैं। (२०)
ये देवताओं के ग़ोल सारे,
तुम्हीं में सब हो रहे हैं दाख़िल,
तमाम हैबत से हाथ बांधे,
तुम्हारे गुण गुनगुना रहे हैं।
तुम्हारी स्तुति पुकारते हैं,
महर्षि और सिद्ध मिल कर,
तुम्हारी तारीफ़ गा रहे हैं,
तुम्हारे नग़मे सुना रहे हैं। (२१)
वो रूद्र आदित्ये और वसु सब,
वो साध्य विश्वदेव अशिवनी,
तमाम माबहूत हो रहे हैं,
निगाह को हैरत में ला रहे हैं।
गिरोह पितरों के और मारुत,
वो यक्ष गन्धर्व राक्षस सब,
गिरोह सिद्धो के मिल मिला कर,
सभी अचम्भे में आ रहे हैं। (२२)
हज़ारो चेहरे हज़ारो आँखे,
हज़ारो बाज़ू हज़ारो जानू,
शिकम हज़ारो, कदम हज़ारो,
बला के दन्दाँ डरा रहे हैं।
तुम्हारा बेअन्त रूप वो हैं,
कि शहन्शाह-ए ज़ोर-ओ ताक़त,
मैं ख़ौफ़ से खुद भी कांपता हूँ,
जहाँ भी सब थरथरा रहे हैं। (२३)
तुम्हारा यह पुरजलाल क़ामत,
जो आसमाँ से लगा हुआ हैं,
अनेक रंग उस पे छा रहे हैं,
जो ज़ेब-ओ ज़ीनत बढ़ा रहे हैं।
फ़राग़ चेहरा खुला हुआ मुँह,
बड़ी-बड़ी शोलाह-बार आँखे,
न मुझ में ताक़त न चैन विष्णु,
ये मेरे मन को डरा रहे हैं। (२४)
तुम्हरी दाढ़े उभर रही हैं,
कि आग महशर की जल रही हैं,
फ़ना के शोले निकल रहे हैं,
जो इस जहाँ को जला रहे हैं।
मेरा सहारा न है ठिकाना,
करम हो मुझ पर करम हो मुझ पर,
तुम्हारे साये में सारे आलम,
सरों को अपने छुपा रहे हैं। (२५)
वो सारे धृतराष्ट्र के बेटे और,
उन के साथी जहाँ के राजा,
पितामह भीष्म द्रोणाचार्य,
वो करण रथ-बाँ आ रहे हैं।
हमारी ज़ानिब के ऊंचे अफ़सर,
सिपाहसालार नाम वाले,
तुम्हारे कालिब में आ रहे हैं,
तुम्हारे तन में समा रहे हैं। (२६)
तुम्हारे खूँख्वार मुँह के अन्दर,
हैं सफ़-बा सफ़ हौलनाक दाढ़े,
मैं देखता हूँ कि ऐहल-ए आलम,
सब अपनी हस्ती मिटा रहे हैं।
पहुँच के जबड़ों की चक्कियों में,
सर उन के पिस कर हुए हैं चूरन,
ख़ला में दांतो के उन में अक्सर,
फंसे हुए लड़खड़ा रहे हैं। (२७)
दहन तुम्हारे चमक रहे हैं,
और उस में यूँ कोंदते हैं शोले,
जहाँ के सब शूरवीर ख़ुद को,
इन्ही के अन्दर गिरा रहे हैं।
वो इस तरह जा रहे हैं सारे,
कि जैसे नदियों की तेज़ धारे,
किसी समुद्र के मुँह के अन्दर,
सब अपनी हस्ती मिटा रहे हैं। (२८)
दहन के शोलों में कूदते हैं,
ये तेज़-रफ़्तार लोग सारे,
फिदा सभी तुम पे हो रहे हैं,
ये मौत के मुँह में जा रहे हैं।
नहीं ये इन्सां ये हैं पतंगे,
जो इश्क़-ओ मस्ती में वा-लहाना,
अज़ल के शोलों पे उड़ रहे हैं,
फ़ना से जो लौ लगा रहे हैं। (२९)
मज़े से लब अपने चाटते हो,
तुम इक जहाँ को निगल निगल कर,
जबाँ से शोले निकल रहे हैं,
हर इक को लुकमा बना रहे हैं।
तुम्हारी ताब-ओ तपश से विष्णु,
तमाम आकाश है दहकता,
तुम्हारी किरणों के तेज़ जलवे,
ज़माने भर को जला रहे हैं। (३०)
हो देवताओं के देवता तुम,
तुम्हें नमस्कार कुछ बता दो,
तुम्हारी इस पुर-जलाल सूरत में,
किस के जलवे समा रहे हैं।
तुम्हारी हस्ती अज़ल से पहले,
बताओ मुझ को कि कौन हो तुम ?
ये कैसे असरार हैं तुम्हारे,
जो मुझ को हैराँ बना रहे हैं ?। (३१)
श्रीभगवानुवाच ---
कज़ा हूँ मैं कज़ा हूँ मैं,
कि दरपय फ़ना हूँ मैं,
जहाँ की हस्त-ओ बूद को,
मिटाने आ रहा हूँ मैं।
ये शूरवीर लश्करी,
जो तुल रहे हैं जंग पर,
तू हो न हो ये सब के सब,
हलाक कर चुका हूँ मैं। (३२)
तू अर्जुन उठ हो नेक-नाम,
दुश्मनों को घेर कर,
ब-ज़ोर छीन ताज-ओ तख्त,
हम सरो को ज़ेर कर।
ये मर चुके, ये मर चुके,
फ़ना मैं इन को कर चुका,
तू बायें हाथ वाले उठ,
वसीला बन न देर कर। (३३)
मैं कर्ण, भीष्म और दरूँ,
इन्हें हलाक कर चुका,
जयद्रथ और ये जंग-जूँ,
समझ हर एक मर चुका।
तू जीत जायेगा न डर,
अदू से अपने जंग कर,
तू मार इन्हें ये मर चुके,
सफर जहाँ से कर चुके। (३४)
सञ्जय उवाच ---
सुनी जब यह गुफ़्तार भगवान् की,
लगी साहिब-ए ताज को कंपकंपी।
ज़बां लड़खड़ाई गला रुक गया,
झुका जोड़ कर हाथ कहने लगा। (३५)
अर्जुन उवाच --
जमाना करता हैं ऐ हृषीकेश !
जिस की हमद-ओ सना तुम्हीं हो,
ख़ुशी से गुण गाते हैं तुम्हारे,
कि सब के परमात्मा तुम्हीं हो।
तुम्हीं से डर-डर के राक्षस सब,
दसों दिशाओं में भागते हैं,
करें नमस्कार सिद्ध मिल कर,
जिसे वो सब के ख़ुदा तुम्हीं हो। (३६)
बड़े हो ब्रह्मा से मरतबे में,
कि खुद ही ब्रह्मा के तुम हो मूजब,
करें नमस्कार क्यों न सारे,
कि ज़ात-ए लाइन्तिहा तुम्हीं हो।
तुम्हीं हो सत् भी तुम्हीं असत् भी,
तुम्हीं हो तत्व भी तुम्हीं हो अक्षर,
जगत-निवास और महात्मा हो,
देवताओं के देवता तुम्हीं हो। (३७)
तुम्हीं हो बरतर ख़ुदा-ए अव्वल,
पुरुष कदीमी पनाह-ए आलम,
तुम्हीं सज़ावार-ए इल्म-ओ उरफाँ,
अलीम-ए राज़ आशना तुम्हीं हो।
तुम्हीं से फैला जहान सारा,
तुम्हीं हो सब का मुकाम-ए अफ़जल,
हैं जिस से भरपूर सारी दुनिया,
अनन्त रूपी खुदा तुम्हीं हो। (३८)
तुम्हीं जहाँ के हो बाप-दादा,
तुम्हीं हो ब्रह्मा तुम्हीं हो यम भी,
तुम्हीं वरुण हो तुम्हीं हो अग्नि,
तुम्हीं हो चाँद और हवा तुम्हीं हो।
तुम्हें हो नमस्कार फिर नमस्कार,
फिर नमस्कार मेरे दाता,
तुम्हें नमस्कार हो हज़ारो,
ख़ुदा-ए इज्जो अला तुम्हीं हो। (३९)
तुम्हें, नमस्कार हज़राना,
तुम्हें नमस्कार ग़ायबाना,
तुम्हें नमस्कार हर तरफ से,
कि कुल में जलवा नुमा तुम्हीं हो।
तुम्हारी कुव्वत की कोई हद हैं,
न जोर-ओ ताकत के इन्तहा हैं,
तुम्हीं से कायम हैं सारा आलम,
नहीं कोई दूसरा तुम्हीं हो। (४०)
कभी कहा मैंने कृष्ण तुम को,
कभी कहा मैंने दोस्त यादव,
मैं बे-तक़ल्लुफ़ रहा समझता,
कि यार आशना तुम्हीं हो।
इसे समझ लो मेरी मुहब्बत,
इसे समझ लो मेरी जहालत,
न पहले अफ़सोस मैंने समझा,
कि शाह-ए अरज़-ओ समा तुम्हीं हो। (४१)
जो बैठे उठे जो खाते-पीते,
जो जागे सोते जो खेलते में,
हुई हो गुस्ताखियाँ तो बख्शो,
कि ज़ात-ए लाइन्तहा तुम्हीं हो।
कभी अकेले कभी सभा में,
कहा हो कुछ दिल-लगी से तुम को,
तो पुर ख़ता की ख़ता को बख्शो,
कि हस्ती-ए बे-ख़ता तुम्हीं हो। (४२)
हैं जितने साबित, हैं जितने सय्यार,
सब जहानों के हो पिता तुम,
तुम्हीं को शायाँ हैं सारी इज़्ज़त,
कि मुरशद-ओ रहनुमा तुम्हीं हो।
नहीं तुम्हारी मिसाल कोई,
किसे फ़ज़ीलत है तुम से बढ़ कर,
न जिस की ताकत का तीनों आलम में,
है कोई दूसरा तुम्हीं हो। (४३)
इसीलिए सिज़दा कर रहा हूँ,
तुम्हारे आगे झुका के तन को,
कि जिस को ज़ेबा है सज़दा करना,
फ़क़त मेरे किबरिया तुम्हीं हो।
पिदर नवाज़िश करे पिसर पर,
सजन-सजन पर, पिया-पिया पर,
दया करो तुम भी मुझ पे भगवान् !
कि बहर-ए लुत्फ़-ओ अता तुम्हीं हो। (४४)
तुम्हारा मैंने वो रूप देखा,
न जिस को देखा था मैंने पहले,
मैं खुश भी हूँ और मैं ग़मज़दा भी,
मुकाम-ए बीम-ओ रज़ा तुम्हीं हो।
मुझे दिखा दो मुझे दिखा दो,
वही वो पहली-सी अपनी सूरत,
जगत-निवास अब दया हो मुझ पर,
कि देवों के देवता तुम्हीं हो। (४५)
मुकुट लगाया हो गुर्ज उठाया हो,
हाथ में हो तुम्हारे चक्कर,
वो रूप पहला-सा देख लूँ मैं,
कि देर से आशना तुम्हीं हो।
दया करो मुझ पे फिर दिखा दो,
वो मूर्ति चार हाथों वाली,
तुम्हारे हैं गो हज़ार बाज़ू,
कि विश्वरुपी ख़ुदा तुम्हीं हो। (४६)
श्रीभगवानुवाच ----
सुन अर्जुन अब मेरी दया,
यह तुझ पे बिलजरूर हैं।
कि मैंने अपने योग से,
दिखा दिया ज़हूर हैं।
न जिस को देखा आज तक,
किसी ने भी तेरे सिवा,
वो अव्वली वो दायमी,
यह विश्वरूपी नूर है। (४७)
कुरु के खानदान में,
मिली हैं तुझ को सरवरी,
दिखाया तुझ को अपना रूप,
है यह बन्दा-परवरी।
न वेद जप से मिल सके,
न दान तप से मिल सके,
न यज्ञ न कर्म-काण्ड से,
दिखाई दे सके हरी। (४८)
हिरास-ओ ख़ौफ़ छोड़ दे,
न जार हो न जार हो,
न हौलनाक रूप से,
मेरे तू बेकरार हो।
ले मेरी शक्ल देख ले,
तू जिस से आशना भी हैं,
यह बीम-ओ ख़ौफ़ दूर कर,
ख़ुशी से हम-कनार हो। (४९)
सञ्जय उवाच --
यह कह कर महा आत्मा ने वहीं,
दिखा दी वही पहली सूरत हुसी।
गया ख़ौफ़ सब आन की आन में,
तसल्ली से जान आ गई जान में। (५०)
अर्जुन उवाच --
जो अर्जुन ने देखा तो भगवान् की,
वहीं पहली सूरत थी इन्सान की।
कहा अब मेरा दिल ठिकाने लगा,
मुझे होश भगवान् आने लगा। (५१)
श्रीभगवानुवाच --
फिर अर्जुन से भगवान् कहने लगे,
कि तूने जो अब मेरे दर्शन किये।
सदा देवताओं को अरमां रहा,
यह दर्शन कहाँ उन को हासिल हुआ। (५२)
मुझे तूने देखा हैं जिस तौर से,
यही तौर मुमकिन नहीं और से।
यह दीदार यज्ञ से न तप से मिले,
न दान और न वेदों दे जप से मिले। (५३)
अगर मेरी भक्ति में यक्सू रहे,
मेरा ज्ञान हो और मुझे देख ले।
हक़ीकत का उरफाँ भी हासिल हो फिर,
मेरी ज़ात-ए आली में वासिल हो फिर। (५४)
मेरा भक्त हर काम मेरा करे,
ताल्लुक किसी से न नफरत उसे।
करे मुझ को मक्सूद अपना ख़्याल,
तो अर्जुन वो पा जाये मुझ से वसाल। (५५)
(ग्यारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ)
(ग्यारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ)
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