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प्रथम अध्याय: "अर्जुनविषादयोग"

  • Sanjay Bhatia
  • Mar 11, 2017
  • 5 min read

ॐ श्रीपरमात्मने नमः।

धृतराष्ट्र उवाच -

कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि पे जब, मिले पडुवो से मेरे लाल सब।

लड़ाई का दिल में जमाये ख्याल, तो संजय बता उन का सब हालचाल?। १।

संजय उवाच -

महाराज ! आई नज़र जिस घडी, सफ़ - ए आरासपह पाण्डवो कि खड़ी।

गये राजा दुर्योधन उठ कर शिताब, किया जा के अपने गुरु से खिताब। २।

धृतराष्ट्र उवाच -

कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि पे जब,मिले पडुवो से मेरे लाल सब।

लड़ाई का दिल में जमाये ख्याल, तो संजय बता उन का सब हालचाल?। १।

संजय उवाच -

महाराज ! आई नज़र जिस घडी, सफ़ - ए आरासपह पाण्डवो कि खड़ी।

गये राजा दुर्योधन उठ कर शिताब, किया जा के अपने गुरु से खिताब। २।

गुरू जी ! जरा देखिये औज - मौज,सफ़ -ए आरा है पाण्डु के बेटो की फ़ौज।

द्रुपद का पिसर उन का सरदार है,जो चेला तुम्हारा ही तररार है। ३।

लड़ाई को निकले हैं एहले -ए खदंग,जो सब अर्जुन और भीम हैं वक्त - ए जंग।

विराट् और युयुधान मर्दान-ए कार,द्रुपद-सा बहादुर महारथ सवार।४।

कही धृष्टकेतु कही चेकिताँ,कहीं राजा काशी का शेर - ए ज़माँ। इधर कुंतीभोज और पुरुजित उधर,कहीं शैब्य सूरत - ए गाद - ए नर। ५।

युधामन्यु जैसा कहीं शूरवीर, कहीं उत्तमोजा बली बेनज़ीर। कहीं हैए बहादुर सुभद्रा का शेर,पिसर द्रुपदी के महारथ दिलेर। ६।

मुकद्दस गुरु साहिब - ए एहतराम,जहाँ के दो जन्मों में आली मुकाम। सुनो अब हमारे हैं सरदार कौन,हमारी सिपह के सालार कौन। ७।

गुरु जी इधर सब से अव्वल जनाब,तो फिर भीष्म और कर्ण से लाजवाब।

कृपा फ़तहमंद अशवत्थामा नर,विकर्ण और बली सोमदत्त का पिसर। ८।

दिलावर इसी शान के बेशुमार,जो मेरे लिए जा भी कर दे निसार।

सरापा - मुसल्ला उठाये खदंग,इयाँ जिन पे सब जंग के रंग - ढंग।९।

हमारी इधर फ़ौज है बेशुमार,कमाँदार भीष्म-सा आली वकार।

मुकाबिल में महदूद फ़ौज - ए ग़नीम,है सेनापति जिन के लश्कर का भीम। १०।

संजय उवाच - जवानों कतारो में बंट जाइयो,परे बांध कर रण में डट जइयो।

दिलेरों ! सफ़े अपनी भर दो सभी,न भीष्म पे आंच आये मर्दो कभी।११।

यह सुन कर गरजने लगा मिस्ल-ए शेर,वो भीष्मपितामह वो पीर - ए दिलेर।

वो शंख अपना जंगी बजाने लगा,तेरे लाल का दिल बढ़ाने लगा। १२।

यकायक उठा फ़ौज से शोर - ओ गुल,जो नाकूस चिल्लाये खड़के दुहुल।

गरजने धड़कने लगे ढोल दफ़,लगी गोमुखे चीखने हर तरफ। (१३)

खड़ा था वहां एक रथ शानदार,जुते जिस में बुर्राक सब रहोवार।

थे माधो भी अर्जुन भी उस में खड़े,वो शंख आसमानी बजाने लगे। (१४)

ह्रषीकेश का पंचजन्य पे जोर,इधर देवदत्त पर था अर्जुन का शोर।

उधर भीम - सा मर्द-ए खूंखार था,जो पौड्र पे चिघाडता था खड़ा। १५ ।

महीपत युधिष्ठर वो कुंती का लाल,'विजय' पर देखता था अपना कमाल।

देखते नकुल और सहदेव जोश,लिये एक 'मणिपुष्पक' और इक सुघोष।१६।

वो काशी का राजा धुनुषधार भी,शिखण्डी महारथ सा जररार भी,

विराट और बली​ द्रेष्ट्रधुमन सभी,कवि सत्यकि जो न हारा कभी। १७।

द्रुपद और सुभद्रा का बलवंत लाल,पिसर द्रोपदी दी सभी बाकमाल। महाराज हर - सू देखते थे जोश,बजाते थे शंख अपने बासद ख़रोश।१८।

वो हंगामा बरपा हुआ आलमाँ,हुए शोर से पुरजमी आसमाँ। हिरासाँ थे धृतराष्ट्र के पिसर,लगे फटने सीनों में कल्ब - ओ जिगर। १९।

कि इतने में पाण्डु का बेटा उठा,उड़ाता फरेरा हनुमान का। कमाँ उस ने ले ली कि तेरे पिसर,खड़े थे चलाने को तीर - ओ तबर। २०।

अर्जुन उवाच - महीपत ! वो बोला ह्रषीकेश से,कि ऐ लफ़ाना ! रथ बढ़ा दीजिये। चले वस्त में देखने औज - मौज,इधर अपनी फ़ौज़ और उधर उन् की फ़ौज। २१। मैं देखूं जरा वो जवां कौन हैं,जरी कौन हैं ? पहलवा कौन हैं ? लड़ाई को आये हैं जो बे - दरंग,मुझ आज दरपेश हैं जिन से जंग। २२। नज़र उन की सूरत पे कर लूँ जरा,जो आये हैं मर्द-ए नबुर्द आज़मा। यह मकसद है जिन का कि हो उन से शाद,वो धृतराष्ट्र का पिसर कुंज निहाद। २३। संजय उवाच गुडाकेश से जब हर्षिकेश ने,सुना यह तो रथ को बढ़ाने लगे। था उस रथ का रुतबा रथो में बड़ा,किया दोनों फ़ौज़ों में ला खड़ा। २४। द्रोण और भीष्म डटे थे वहां,जमे थे वही राजमान - ए जहाँ। कहा - "अर्जुन ने देखा खड़े सफ़ ब - सफ़,लड़ाई की ख़ातिर कुरु सर - बकफ़। २५। तब अर्जुन ने देखा खड़े हैं तमाम,चचे, दादे, उस्ताद जी - एहतराम। कही बेटे, पोते, कही यार हैं,बरादर हैं, मामू हैं, ग़मख़्वार हैं। २६। खुसर हैं कोई, कोई दिलबन्द हैं,कि इक से लगा इक का पयोन्द है। जिगर की जिगर से लड़ाई है आज,कि लड़ाई को भाई से भाई है आज। २७। अर्जुन उवाच - हुआ दिल को अर्जुन के रंज - ओ मलाल,कहा रहम - ओ रिक्कत से हो कर निढाल। महाराज ! यह क्या है दरपेश आज,कि लड़ने को है खेश से खेश आज। २८। बदन में नही मेरे ताब - ओ तवां,दहन खुश्क है सूखती है जबाँ। लगी है मुझे कंपकंपी थरथरी,मेरे रोंगटे भी खड़े हैं सभी। २९। चला हाथ से मेरे गाण्डीव अब,बदन जल रहा है मेरा सब का सब। यह लो पाओ भी लड़खड़ाने लगे,मेरे सर को चक्कर से आने लगे। ३०।

महाराज केशव ! मैं अब क्या कहूँ,कि आसार बद हैं बुरे हैं शगू।

यह कार-ए जबूं कर के क्या फ़ायदा,अज़ीज़ों का खू करके क्या फ़ायदा। (३१ -श्लोक)

मुझे ख़्वाहिश फतह - ओ नुसरत नही,मुझे शोक ऐश - ओ हकूमत नही।

कि गोविन्द ! ताज - ए शही हेच है,खुशी हेच है, जिंदगी हेच है। (३२ -श्लोक)

तमन्ना थी जिन के लिए राज की,खुशी जिन से थी उशरत - ओ ताज की I

खड़े हैं वे तीर-ओ कमाँ जोड़ कर,जऱ - ओ माल ओ-जाँ सब से मुँह मोड़ कर। ३३-श्लोक।

पिदर भी हैं दादे भी उस्ताद भी,पिसर भी हैं अैर उन की औलाद भी।

यह मामू, वो बीबी का भाई वो बाप,सभी में क़राबत सभी में मिलाप। ३४- श्लोक।

मुझे कत्ल कर दें अगर बे-दरेग़,न फिर भी उठाऊँगा अपनों पे तेग़।

मधुमार ! क्या शय है दुनिया का राज,न लूँ इस तरह तीनों आलम का बाज। ३५- श्लोक।

फ़ना हों जो धृतराष्ट्र के पिसर,तो होगा खुशी का न दिल में गुज़र।

ये सफ्फाक गर हो भी जाये तबाह,न छोड़ेगे पीछा हमारा गुनाह। ३६ श्लोक।

ये धृतराष्ट्र के जो फ़रज़न्द हैं,ये माधो ! सब अपने जिगरबन्द हैं।

अगर हम अज़ीज़ो को कर दें हलाक, रहेंगे सदा ग़म से अन्दोहनाक। ३७ - श्लोक।

समझ इन की हर चन्द गहना गई,दिलों पर हवा-ओ हवस छा गई।

न समझे वो यारों से लड़ना ख़ता,न अहसास हो गर कबीले फ़ना। ३८ - श्लोक।

नही लेकिन ऐसे तो नादान हम,बचे पाप से क्यों न भगवान हम।

कि ज़ाहिर है गर ख़ानद़ाँ हो तबाह,कहाँ इस से बढ़ कर है कोई गुनाह।३९ - श्लोक।

कबीला फ़नाह गर कोई हो गया,कदीमी वो धर्म उस का सब खो गया।

रहा धर्म पर जब न दार - ओ मदार,अधर्म उस पे हो जाए अन्जामकार। ४० - श्लोक।

अधर्मी जो हो जाये सब मर्द-ओ-जन,बिगड़ जाये फिर औरतों का चलन। रहें औरतें ही न जब पाकबाज,तो वर्णों में बाकी कहाँ इम्तियाज।४१-श्लोक। जो वर्णों में ऐसी खराबी मचाये,वो और उन के कुनबे जहनुम को जाये। बड़ो को न पिण्ड और न पानी मिले,तनज्जल उन्हें जावदनी मिले। ४२-श्लोक। कबीलों को ग़ारत करें जो बशर,हों वर्ण उन के पापो से ज़ेर - ओ ज़बर। वो ज़तो की रीते मिटाते रहे,घरानों के दस्तूर जाते रहें। ४३-श्लोक किसी खानदाँ का जो हो धर्मनाश,न रीतो की परवाह न रस्मो का पास। तो भगवान हम ने सुना है मुदाम,जहनुम के अन्दर है उन का मुकाम। ४४-श्लोक। सद अफ़सोस हम खो के अक्ल - ए सलीम,यह करने लगे है गुनाह-ए अज़ीम। बहायेगे अफ़सोस अपनों का खूं,कि है बादशाही का सिर में जुनूँ। ४५ -श्लोक यह बेहतर है धृतराष्ट्र के पिसर,उड़ा दे जो तलवार से मेरा सर। न हथियार लेकर लडूं उन के साथ,बचाने को अपने उठाऊँ न हाथ। ४६ -श्लोक संजय उवाच - यह कहते हुए हाल-ए दिल नागहाँ,दिये फैंक अर्जुन ने तीर-ओ कमाँ। न रथ में खड़ा रह सका वो हज़ी,जो दिल उस का बैठा तो बैठा वही। ४७ -श्लोक

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