दूसरा अघ्याय : सांख्ययोग
- Sanjay Bhatia
- Mar 13, 2017
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ॐ श्री परमात्मने नमः
सांख्ययोग दूसरा अघ्याय

संजय उवाच -
जो अर्जुन का देखा यह रंज-ओ मलाल,ग़म-ओ सोज़ दिल में तबीयत निढाल।
नज़र दुःख से बेचैन आँखों में नम,तो भगवान बोले जें -राह -ए करम। (१-श्लोक)
श्रीभगवानुवाच -
सुन अर्जुन ! यह कैसी रवश है रजील,जो दोजक में डाले, जो कर दे जलील।
कठिन वक्त में ऐसी क्यों बे - दिली,न हो आर्यो में यूं बे-दिली। (२-श्लोक)
तू अर्जुन न बन हीज नामरद-ओ जार,नहीं तेरे श्याने - शॉ जी की हार।
यह कम हिम्मती छोड़ कर जी कड़ा,अदू - सोज़ अर्जुन खड़ा हो खड़ा। (३-श्लोक)
अर्जुन उवाच -
वो बोला कि ऐ फ़ातिह - ए दुश्मना,मधुमार ! मुझ से यह होगा कहाँ।
मुअज़्ज़ज हैं भीष्म दरू हैं गुरु,बहाऊँ मैं तीरों से इन का लहू। (४-श्लोक)
गुरु मोहतरम का नहीं खू रवाँ,गदाई में इस से तो जीना भला।
मैं इन खैर - खवाहो का खू गर करूँ,तो इशरत के लुकमे लहू से भरूँ। (५-श्लोक)
मैं क्या जांनू अच्छा है ऐ सर - परस्त,शिकस्त उन को देना कि खाना शिकस्त।
ये धर्तराष्ट्र के पिसर हैं तमाम,उन्हें मार कर अपना जीना हराम। (६ - श्लोक)
तबीयत है कमज़ोर दिल नर्म है,यह उलझन है अब क्या मेरा धर्म है ?
मैं चेला हूँ मेरी मदद कीजिये,जो हो नेक रस्ता बता दीजिए (७-श्लोक)
जहाँ का मिले बे-ख़लल मुझ को राज,मुझे देवता भी जो दें आके बाज।
मैं उस हाल में भी रहूँगा उदास,इसी दर्द से गुम है मेरे हवास। (८-श्लोक)
संजय उवाच -
गुडाकेश वो फ़ातिह - ए दुश्मना,ह्रषिकेश से कर चुका जब बयां।
तो यूं कह के चुप हो गया वो हजी,"मैं गोविन्द लड़ता-लड़ाता नही" (९- श्लोक)
इधर फ़ौज थी और उधर फ़ौज थी,दिल अर्जन का और ग़म की इक मौज थी।
ह्रषिकेश कुछ मुस्कराने लगे,ये उरफ़ॉ के मोती लुटाने लगे। (१०- श्लोक)
श्रीभगवानोवाच -- तू बातों के आकिल ! न हो दिल मालूल,न कर उन का ग़म जिन का ग़म है फजूल।
सिताये न दाना को रंज - ओ अलम,मरे का न सोग और न जीते का ग़म। (११-श्लोक)
अज़ल से थी मौजूद हस्ती मेरी,अज़ल से थी मौजूद हस्ती तेरी।
ये राजे सभी और यह ख़लकत तमाम,हमेशा से हैं और रहेंगे मुदाम। (१२ - श्लोक)
करे रूह जैसे तग़य्युर बगैर,लड़कपन जवानी बुढ़ापे की सैर।
यूँही फिर नये तन में होगी मकी,अगर दिल है मज़बूत चिन्ता नही। (१३-श्लोक)
यह गरमी, यह सरदी, ये दुःख सुख तमाम,बस एहसास - ए यह अशिया से हो लाकलाम।
पै केफ़ियते आनी - जानी है ये,सहे जा खुशी से कि फ़ानी है ये। (१४-श्लोक)
वी इंसाँ असर जिस पे इन का नही,ख़ुशी से जो खुश हो न ग़म से हज़ी।
सुन अर्जुन है कायम दिल उस का मुदाम,उसी की ही है शायां हैयात -ए दवाम। (१५-श्लोक)
जो बातल है मोजूद होता नहीं, जो हक है वो नाबूद होता नहीं।
वो है बूद-ओ नाबूद से बाख़बर,हक़ीक़त पे रहती हैं जिन की नज़र। (१६-श्लोक)
उसी को बक़ा है उसी को सबात,जहाँ पर है छाई हुई जिस की जात।
भला किस की ताक़त है किस की मज़ाल,फ़ना कर सके हस्ती-ए लाज़वाल। (१७-श्लोक)
बसाये हैं जिस आत्मा ने वजूद,वो कायम है, दायम है और बे-हदूद।
है फ़ानी बदन आत्मा लाज़वाल,फिर अर्जुन है क्यों जंग में कील-ओ काल। (१८-श्लोक)
कभी खून करती नही आत्मा,कभी खुद भी मरती नहीं आत्मा।
न कातल है यह और न मकतूल है,जो ऐसा समझता है मजहूल है। (१९-श्लोक)
जन्म इस को लेना न मरना इसे,न आ कर जहाँ से गुजरना इसे।
अनादि फ़ना और तग़य्युर से पाक,यह मरती नहीं गो बदन हो हलाक। (२०-श्लोक)
श्रीभगवानुवाच -
जो समझे इसे दायम - ओ लाइजाल,मुबर् रा वलादत से और बे-ज़वाल।
किसी का वो क्योंकर बहाएगा खून,किसी का वो क्योंकर करेगा खून (२१-श्लोक)
बदलता है इंसाँ लिबास - ए कुहन,नया जामा करता है फिर जेब - ए तन।
इसी तरह कालब बदलती है रूह,नये भेस में फिर निकलती है रूह। (२२- श्लोक)
कटेगी न तलवार से आत्मा,जलेगी कहाँ आग से आत्मा।
न गीली हो पानी लगाने से यह,न सूखे हवा में सूखने से यह। (२३-श्लोक)
न कट हे सके और न जल ही सके,न सूखे न पानी से गल ही सके।
कदीम और अटल भी है, दायम भी है ,मूहित - ए जहाँ भी है कायम भी है। (२४-श्लोक)
नहीं आत्मा को तग़य्युर जवाल,हवास उस को पाये न पहुँचे ख़याल।
तुझे आत्मा का जो यह ज्ञान है,तो फिर किस लिये गम से हलकान है। (२५-श्लोक)
अगर तू समझता है यह आत्मा,हो पैदा कभी और कभी हो फ़ना।
तो फिर भी है लाज़म तुझे ओ कवी,कि ग़म आत्मा का ना करना कभी। (२६-श्लोक)
जो पैदा हो मौत उस को आए जरा जरूर,मरे तो जन्म फिर वो पाए जरूर।
जो यह अमर लाज़म है और नागज़ीर,तो फिर किस लिए है तू ग़म का असीर। (२७-श्लोक)
निगाहों से पहले निहाँ हो वजूद,ये फिर बीच में कुछ ऐया हो वजूद।
निहाँ फिर ये हो जाये इन्जाम-ए कार,तू अर्जुन है फिर किस लिये बे-करार। (२८-श्लोक)
कोई आत्मा से तअज्जुब में आए,कोई बात हैरत से उस की सुनाए।
कोई जिक्र सुन-सुन के हैरान है,मगर सुन-सुना कर भी अंजान है (२९-श्लोक)
जो है सब के तन में मकी आत्मा,यह दायम है फ़ानी नहीं आत्मा।
जो इस पर यकीं है तो भारत के लाल,न कर एहल-ए हस्ती का रंज-ओ मलाल। (३०-श्लोक)
तेरा फर्ज़ क्या है रख उस पर नज़र,न जी डगमगा उस की तकमील कर। अमल क्षत्री का कोई क्यों न हो,न पहुँचे कभी धर्म की जंग को। (३१- श्लोक) हैं अर्जुन वही क्षत्री खुश - नसीब,मिले माहरक जिन को ऐसा अजीब। यह बिन माँगे नेमत खुद आई है घर,खुले-खुद बखुद आ के जन्नत के दर। (३२- श्लोक) अगर धर्म की तू लड़ेगा न जंग,और इस जंग में कुछ करेगा दरंग। तू पत तेरी बाकी रहेगी न धर्म,तुझे पाप घेरेंगे आयेगी शर्म। (३३ - श्लोक) तुझे लोग देखेगे तहकीर से,न लेंगे तेरा नाम तौकीर से। जो बा-आबरू इस जहाँ में रहे,वो मरने को जिल्लत पे तरजीह दे। (३४-श्लोक) कहेगे बहादुर महारथ सवार,तू मैदा से डर कर हुआ है फरार। तुझे सब बुलाते है इज़्ज़त से अब,ये लेगे तेरा नाम ज़िल्लत से तब। (३५- श्लोक) इधर तेरे दुश्मन जो रखते हैं कद,जिन्हें है शुजायत पे तेरी हसद। वो बोलेंगे ना - गुफ़तनी बोलियाँ,मिले रंज - ओ ग़म इस से बढ़ कर कहाँ। (३६-श्लोक) मरेगा तो पायेगा जन्नत में घर,अगर जीत जाए तो दुनिया हो सर। उठ अर्जुन खड़ा हो दिखा जोर-ए जंग,कि मरदों को मैदा से हटना है नंग। (३७-श्लोक) हो सुख या कि दुःख सब को यकसा समझ,मुसावी यहाँ नफ़ा - ओ नुक्सा समझ। बराबर समझ जंग में जीत हार,बचेगा गुनाहों से दो हाथ मार। (३८-श्लोक) यह तालीम थी संख्य के ज्ञान से,समझ योग की बात अब ध्यान से। अगर योग में तुझ को हो एहनमाक,तो कर्मो के बंधन से हो जाये पाक। (३९-श्लोक) न कोशिश हो इस में कोई रायेगा,हो रस्ते में उस के रूकावट कहाँ। जरा भी जो यह धर्म आ जायेगा,तो ख़ौफ़-ओ ख़तर से बचा जायेगा। (४०- श्लोक)
जो अक्ले-इरादे रहे मुस्तकिल,तो यकसू हो और पुख़ता इंसाँ का दिल। इरादा न हो जिस का सुलझा हुआ,रहेगा ख़यालो में उलझा हुआ। (४१ - श्लोक) जो वेदों के लफ्ज़ों से है शादमाँ,वो नादाँ करे बस गुल-अफशानियॉ। उन्हें कर्मकाण्डों से है आगही,वो कहते हैं सब कुछ यही है यही। (४२-श्लोक) जन्म को बताये वो कर्मो का फल,सिखाये जऱ-ओ-एश के सौ अमल। वो खुद काम हैं कामनाओं में मस्त,वो जन्नत के तालिब है जन्नत परस्त। (४३-श्लोक) फंसे जिन के दिल ऐसे अफ्वाल में,घिरे एश - ओ दौलत के जंजाल में। समाधि नहीं दिल पे काबू नहीं,कि अक्ल - ए इरादा ही यकसू नहीं। (४४-श्लोक) हैं वेदों लिखे हुए तीन गुण,तू बाला हो इन से न रख इन की धुन। रख इज्दाद का और न हासिल का ग़म,हो मैहव आत्मा में सदाकत पे जम। (४५-श्लोक) वो इन्सा जिसे ब्रह्म का ज्ञान है,उसे कर्म-काण्डों पे कब ध्यान है। उसे वेद महज़ एक तालाब है,जहाँ सारे आलम में सैलाब है। (४६-श्लोक) तुझे काम करना है ओ मरदेकार,नहीं उस के फल पर तुझे इखत्यार । किये जा अमल और न ढूंढ उस का फल,अमल कर, अमल कर न हो बे-अमल। (४७-श्लोक) रख अर्जुन तू दिल योग में उस्तवार,तू कर बे - लगावट अमल इखत्यार । न जीते की शादी न हारे का सोग,कि दिल के तवाजन का है नाम योग। (४८-श्लोक) सुन अब अक्ल के योग का हाल सुन,बहुत पस्त हैं जिस से कर्मो के गुण। बना अक्ल ख़ालिस को तू दस्तगीर,रहें फल के तालिब ज़लील-ओ हक़ीर। (४९-श्लोक) लगी है जिसे अक्ल - ए ख़ालिस की धुन,यही छोड़ देगा वो सब पाप पुन। कमा योग तन मन में बस जाऐ योग,अमल में हुनर हो तो कहलाये योग। (५०-श्लोक)
कि सरशार-ए दानिश मुनि बा-अमल,करें सब अमल छोड़ कर उन के फल।
जन्म के वो बन्धन से आज़ाद हैं,सरूरे-अबद पा के दिल शाद हैं। (५१-श्लोक)
जो हो अक्ल आज़ाद जंजाल से,निकल जाये तू मोह के जाल से।
सुनी बात से भी करे एहतराज़,रहे अनसुनी से भी तू बे-न्याज़। (५२-श्लोक)
परेशां ख़याली से पाये सकूँ,मुकद्दस ज़इफो का गुम हो फसू।
समाधि सी कायम हो दिल ज़ात में,तो हासिल हो फिर योग हर बात में। (४३-श्लोक)
अर्जुन उवाच -----
फिर अर्जुन ने पूछा यह भगवान् से,समाधि में दिल को जो कायम करे।
है उस कायम - उल अक्ल का क्या चलन,हो क्या बूद-ओ बाश उसका कैसा सुखन ? (५४ - श्लोक)
श्रीभगवानुवाच ----
तो भगवान बोले जो हो महवे-जात,जो मन से करे दूर सब ख्व्वाएशात।
रहे जिस का दिल रूह से मुतमैअन,उसी फर्द को कायम-उल अक्ल गिन। (५५-श्लोक)
जो सुख से सुखी हो न दुःख से दुःखी,न ख़ौफ उस को आये न गुस्सा कभी।
न जज़्बो के जंजाल में आये वो,मुनि कायम - उल अक्ल कहलाये वो। (५६-श्लोक)
बुराई जो पहुँचे तो नालां न हो,भलाई जो पाये तो शादाँ न हो।
किसी से तअल्लुक न उस को लगाओ,यही कायम-उल अक्ल का है सुभाओ। (५७-श्लोक)
ज़रा-सा भी दे कोई कछुवे को छेड़,तो लेता है फौरन सब आज़ा सुकेड़।
सुकेड़े जो हर शय से अपने हवास,वो है कायम-उल अक्ल ऐ हक-शनास। (५८-श्लोक)
करे नेमतें तर्क परहेज़गार,मगर शोक-ए लज़्ज़त से हो बे-करार।
उसे तर्क लज़्ज़त की लज़्ज़त मिले,जिसे दीद-ए बारी की दौलत मिले। (५९-श्लोक)
ख़िरद-मन्द के भी हवास - ओ ख्याल,जो तेज़ी में आ जायें कुन्ती के लाल।
तो मन को भी वो छीन ले जायेगे,करें लाख कोशिश न हाथ आयेंगे। (६०-श्लोक)
हवास अपने रोक और लगा मुझ में दिल,तू सरशार हो योग में मुतसइल। रहें ज़ब्त में जिस के होश - ओ हवास,वो है कायम-उल अक्ल ऐ हक शनास। (६१-श्लोक) लगाये जो महसूस अशिया से मन,तअल्लुक बढ़े उन से और हो लगन। तअल्लुक से ख़्वाहिश का हो फिर ज़ऊर,हो ख़्वाहिश से गुस्से का दिल में फ़तूर। (६२- श्लोक) हो गुस्से से फिर तीरगी रुनुमा,असर तीरगी का है सहव - ओ ख़ता। इसी सहव से अक़्ल हो पायमाल,जो ज़ायल हुई अक़्ल आया ज़वाल। (६३-श्लोक) जो करता है महसूस दुनिया की सैर,न उल्फ़त किसी से है जिस को न वैर। रहे नफ़स पर ज़ब्त जिस को मुदाम,वो तस्कीन-ए दिल से रहे शादकाम। (६४-श्लोक) दिले पुरसकूँ में कहाँ आए रंज,कि दुःख दूर हो जायें मिट जाय रंज। जो पैदा हो दिल में सकून-ओ करार,वही अक़्ल कायम हो और उस्तवार। (६५-श्लोक) न हो दिल पे काबू तो दानिश मुहाल,ना हो दिल पे काबू तो भटके ख़याल। परेशां ख़याली से आए न सुख,जिसे सुख न आए सदा उस को दुःख। (६६-श्लोक) हवास आदमी के भटकते हो गर,हो इस हिरजा-गिरदी का दिल पर असर। तो दिल अक़्ल को ले चले इस तरह,कि तूफ़ा में किश्ती बहे जिस तरह। (६७-श्लोक) जो इंन्सा हवास अपने रोके रहे,न महसूस अशिया पे भटका फिरे। तो सुन ले मेरी बात अर्जुन कवि,कि है कायम-उल अक्ल इंसाँ वही। (६८-श्लोक) जिसे रात कहती है दुनिया तमाम,निगाहों में आरफ़ की दिन है मुदाम। जो दिन अहले-आलम के नज़दीक है,वो आरफ़ की शब है कि तारीक है। (६९-श्लोक) समुन्दर में ग़ायब हों दरिया हज़ार,रहेगा वो लबरेज़ और बा-वकार। सब अरमाँ हों गुम जिन के सीने में बस,वुही पाये राहत न एहले हवस। (७०-श्लोक) जो इंसाँ करे ख़्वाहिशें दिल से दूर,हवस का न हो जिस के दिल में फ़तूर। न उस में खुदी हो न हो मेर-तेर,सकूँ उस को हासिल है दिल उस का सेर। (७१-श्लोक) यही है मकाम-ए वसाल - ए खुदा,जहाँ आ के हो सब तुहम्मे फ़ना। दम-ए वापसी भी जो यह ज्ञान हो,तो हासिल उसे ब्रह्म निर्वाण हो। (७२-श्लोक)
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