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तीसरा अध्याय : कर्मयोग

  • Sanjay Bhatia
  • Apr 1, 2017
  • 5 min read

अर्जुन उवाच -

बता मुझ को जब्बारे गैसों - दराज़,अमल से अगर इल्म है सरफ़राज़।

तो रक्खा नहीं मुझ को आज़ाद क्यों,मुझे कुश्त - ओ खूं का है अरशाद क्यों ? (१-श्लोक)

बज़ाहिर नहीं बात सुलझी हुई,मेरी अक्ल है इस से उलझी हुई।

मुझे बात कतई बता दीजिये,भलाई की राह पर चला दीजिये। (२-श्लोक)

श्रीभगवानुवाच -

सुन ऐ मेरे महसूम अर्जुन ज़रा,दिये रास्ते मैंने दोनों बता।

है ज्ञान उन का रस्ता जो ज्ञानी हैं लोग,जो योगी हैं धर्म उन का है कर्मयोग। (३-श्लोक)

कि इन्सां कभी तर्के आमाल से,रिहा हो न कर्मों के जञ्जाल से।

फ़क़त तर्क - ए आमाल से है मुहाल,कि हासिल किसी को हो औज़-ए कमाल। (४-श्लोक)

जहाँ में न देखोगे तुम एक पल,कि कोई भी फ़ारग है और बे-अमल।

सभी काम करने पे मामूर है,गुणों ही से फ़ितरत के मज़बूर हैं। (५-श्लोक)

जो अशिया से रोके कवाय अमल,मगर दिल से ख़्वाहिश न जाये निकल।

जो आशिया की उलफ़त में सरशार है,परा - गन्दा दिल है वो मक्कार है। (६-श्लोक)

मगर ले कवाये अमल से जो काम,करे पहले मन से हवास अपने राम।

लगावट न उस को समर का ख़याल,तो है कर्मयोगी वही बाकमाल। (७-श्लोक)

जो है फर्ज़ तेरा कर उस पर नज़र,कि तर्क - ए अमल से है बेहतर अमल।

अमल छोड़ देने हो तुझ को तमाम,तो मुश्किल हैं तेरे बदन का कयाम। (८-श्लोक)

अमल जिस कदर भी है यज्ञ के सिवा,वो दुनिया को बन्धन में रक्खें सदा।

किये जा तू सब काम यज्ञ जान कर,लगावट न रख और न फल पर नज़र। (९-श्लोक)

जो ख़ालिक ने इंसाँ को पैदा किया,तो यज्ञ को भी पैदा किया और कहा।

कि फूलो-फलो यज्ञ पे रख कर यकीं,मुरादों की यह गाय है कामधी। (१०-श्लोक)

नवाज़ा करो यज्ञ से तुम देवता,तुम्हे देवता भी नवाजें सदा।

जो इक दूसरे को करो साजमन्द,तो हासिल हो तुम को मुकाम - ए बुलन्द। (११-श्लोक)

यज्ञो से नवाजे हुए देवता,तुम्हें नेमतें सब करेंगे अता।

मगर ले के नेमत जो देता नहीं,समझ लो की वो चोर है बिलयकी। (१२-श्लोक)

निकोकार खायें जो यज्ञ का बचा,गुनाहों से करते हैं ख़ुद को रिहा।

जो पापी ख़ुद अपनी ही ख़ातिर पकाये,तो अपने ही पापो का भोजन वो खाये। (१३-श्लोक)

है जिन्दों का ग़ल्ले पे दार-ओ मदार,तो ग़ल्ले का बारश पे है इन्हसार।

हो बारश जो यज्ञ का करें एहतमाम,मगर यज्ञ हों कर्मों से पैदा तमाम। (१४-श्लोक)

सभी कर्म हो ब्रह्म से रुनुमा,करे ब्रह्म को रुनुमा लफ़ाना।

सो वो ब्रह्म दुनिया पे छाया हुआ,है यज्ञ के अमल में समाया हुआ। (१५-श्लोक)

इसी तरह दुनिया का चलता है दौर,जो इस दौर से हट के ले राह और।

वो ख़्वाहिश का बन्दा गुनाहगार है,हैयात उस की दुनिया में बेकार है। (१६-श्लोक)

मगर आत्मा से है जिस को लगन,फ़कत आत्मा से रहे जो मगन।

सदा आत्मा ही से खुरसन्द है,कहाँ फिर वो कर्मों का पाबन्द है। (१७-श्लोक)

न कुछ उस को अफ़्फ़ाल से फ़ायदा,न कुछ तर्क - ए आमाल से फ़ायदा।

न दिल बस्तगी है जहाँ से उसे,न कुछ मुददा इयों-ऑ से उसे। (१८-श्लोक)

रहो इसलिए तुम लगावट से दूर,बजा लाओ फ़र्ज़ अपने सब बिल-ज़रूर।

लगावट न रक्खो अमल में पसन्द,इसी से मिलेगा मुकाम-ए बुलन्द। (१९-श्लोक)

अमल से बुजुर्गों ने पाया कमाल,जनक जैसे इन्सा हुए बाकमाल।

इसी तरह नेकी किये जाओ तुम,जहाँ को भलाई दिये जाओ तुम। (२०-श्लोक)

कोई नामवर शख्स करता है काम,तो करते हैं तक़लीद उस की अवाम।

बड़ा आदमी जो बनाये असूल,उसे सारी दुनिया करेगी कबूल। (२१-श्लोक)

मुझे देख दुनिया का देना है कुछ,न तीनों जहानों से लेना है कुछ।

कमी कुछ नहीं गो मुझे जीनहार,मगर फिर भी रहता हूँ मसरूफ़ - ए कार। (२२-श्लोक)

करूँ मैं न अनथक लगातार काम,तो रुक जायें दुनिया के धन्धे तमाम।

चलें लोग मेरी रवश पर सभी,करें काम वो भी न अर्जुन कोई। (२३-श्लोक)

जो तर्क-ए अमल मैं करूँ इखत्यार,उजड़ जाय दुनिया-ए नापायदार।

हो वरनों का मेरे सबब घाल - मेल,बिगड़ जाय लोगो की हस्ती का खेल। (२४-श्लोक)

हों जिस तरह नादाँ अमल में मगन,उन्हें काम ही की लगी है लगन।

हों वैसे ही दाना के निष्काम काम,रहे ताकि लोगों में कायम निज़ाम। (२५-श्लोक)

श्रीभगवानुवाच ----

अगर मूर्खों में अमल का हो जोश,तज़ज्जब न इन को करें एहले होश।

करें योग में रह के खुद कार - ओ बार,यूँ ही उन को रक्खें वो मसरूफ़-ए कार। (२६-श्लोक)

यह दुनिया के रौनक यह कामो की धुन,सबब इन का असली है फितरत के गुन।

मगर जिस के दिल में अहंकार है,समझता है खुद को कि मुखतार है। (२७-श्लोक)

ज़बरदस्त अर्जुन हो जिस पर ऐया,गुणों और कर्मों का राज़ - ए निहाँ।

रहे बे - ताल्लुक कि दुनिया के काम,गुनों पर गुनों के अमल का है नाम। (२८-श्लोक)

वो मूरख जो माया के धोखे में आये,गुणों और अफ़्फ़ाल से दिल लगाये।

वो जाहिल है और अक्ल में ख़ामकार,न दुविधा में डाले उन्हें होशियार। (२९-श्लोक)

तू मन अपना परमात्मा में लगा,खुदी-ओ हवस छोड़ मत जी जला।

मुझे सौप दे काम सब बे-दरंग,उठ अर्जुन उठ अर्जुन ! हो मसरूफ़ -ए जंग। (३०-श्लोक)

जो हैं मेरी तालीम पर कारबन्द,करें नुक्ताचीनी को जो नापसंद।

अक़ीदत से पाबन्द - अरशाद हैं,वो कर्मों के बन्धन से आज़ाद हैं। (३१-श्लोक)

जो आमल नहीं मेरी तलकीन पर,जो तकरार-ओ हुज्जत करें बेशतर।

अलूम उन के हैं सब फ़रेब-ओ फ़तूर,वो ज़ाहिल तबाही में आये ज़रूर। (३२-श्लोक)

कोई इल्म से लाख पुरनूर है,मगर अपनी फ़ितरत से मज़बूर है।

बशर अपनी फ़ितरत बदलता नहीं,यहाँ जबर से काम चलता नहीं। (३३-श्लोक)

कभी दिल को रग़बत हो महसूस से,कभी दिल को नफ़रत हो महसूस से।

कभी राहज़न हैं दोनों न मरऊब हो,तू ग़लबे से इन के न मग़लूब हो। (३४-श्लोक)

न ले गैर का धर्म गो खूब है,कि धर्म अपना नाकिस भी मरगूब है।

जो मरना पड़े धर्म पर अपने मर,तुझे गैर के धर्म में है ख़तर। (३५-श्लोक)

अर्जुन उवाच --

फिर अर्जुन ने पूछा वो कूअत है क्या,करे जिस से इंसा गुनाह-ओ ख़ता ?

ख़ता कोई करता नहीं चाह से,वो सब कुछ करे जबर-ओ अकराह से ? (३६-श्लोक)

श्रीभगवानुवाच ----

सुना यह तो भगवान् बोले कि बस,ग़ज़बनाक दुश्मन है तेरी हवस।

समझ यह रजोगुण कि औलाद है,यह लोभी है, पापी है जल्लाद है। (३७-श्लोक)

धुआँ रु-ए आतिश को जैसे छुपाये,रुख़े शीशा पर जिस तरह जंग आये।

छुपे पेट में माँ के जैसे जूनी,हवस से छुपे ज्ञान तेरा यूंही। (३७-श्लोक)

हैं सब ज्ञान वालों की दुश्मन हवस,यह पीछा न छोड़ेगी राहजन हवस।

हवस आग ऐसी है कुन्ती के लाल,कि इस आग का सेर होना मुहाल। (३९-श्लोक)

हवास - ओ दिल-ओ अक्ल ऐ नेक नाम,हवस के लिए हैं ये तीनों मुकाम।

यूही ज्ञान इन्सा का रूपोश हो,यूही तन का बाशी भी मदहोश हो। (४०-श्लोक)

इसी वास्ते अर्जुन ऐ हक-शनास,तू कर पहले काबू में अपने हवास।

हवस को फ़नाह कर कि है यह गुनाह,करेगी यही इल्म-ओ उरफा तबाह। (४१-श्लोक)

हवास आदमी के हैं आला तमाम,मगर उन से ऊँचा है मन का मुकाम।

है मन से बड़ा मरतबा अक्ल का,मगर अक्ल से बढ़ के है आत्मा। (४२-श्लोक)

समझ आत्मा अक्ल से है बुलन्द,बना नफ़स को रूह का पायेबन्द।

हवस है तेरी दुश्मन-ए ख़ौफनाक,जबरदस्त अर्जुन इसे कर हलाक। (४३-श्लोक)

तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ

 
 
 

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