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छठा अध्याय : आत्मसंयमयोग

  • Sanjay Bhatia
  • Jun 9, 2017
  • 5 min read

श्रीभगवानुवाच ---

सुन अर्जुन जो इन्सां करे सब अमल,

फ़रायज़ बजा लाए ढूंढे न फल।

वो योगी है और संन्यासी ज़रूर,

न वो जो रहे आग क्रिया से दूर। (१)

वही जिस को संन्यास कहते हैं लोग,

सुन अर्जुन वही है वही खास योग।

कि खुद योग में मर्द - ए कामल नहीं,

जो छोड़े न फ़िक़्र - ए चुना-ओ चुनी। (२)

मुनि वो जिसे योग दरकार है,

अमल ही अमल उस का हथियार है।

मगर योग से जब वो हो कामगार,

तो हथियार है फिर सुकून-ओ करार। (३)

न महसूस आशिया से जिस को लगन,

अमल से लगावट न उस में मगन।

नहीं जो को फ़िक्र-ए चुना-ओ चुनीं,

कहें योग का उस को मसनद नशी। (४)

मुनासिब नहीं खुद को इन्सां गिराये,

वो खुद को उभारे वो खुद को उठाये।

कि इन्सां खुद अपना ही ग़मख़्वार है,

वो अपना ही बदख़्वाह - ओ ग़द्दार है। (५)

करे नफ़्स को अपने ज़ेर-ए नगीं ,

तो खुद अपना ग़मख़्वार है बिलायकी।

मगर जिस को काबू नहीं नफ़्स पर,

वो दुश्मन है अपने लिए सरबसर। (६)

जिसे सरशार योगी रहे उस्तवार,

मिले इल्म-ओ उरफ़ा में जिस को करार।

हवास उस के हैं ज़ेर मज़बूत दिल,

हैं यक्सा उसे जर हो मिटटी कि सिल। (७)

वो योगी है अफ़्ज़ल जिसे हो सब एक,

सगे, दोस्त, बेलाग, एहबाब नेक।

हों सालिस कि दुश्मन दिलाज़ार हों,

वो धर्मात्मा हों कि बदकार हों। (८)

जो योगी है वो योग तनहा कमाये,

अलग रह के दिल आत्मा में लगाये।

रहे उस के काबू में तन हो कि मन,

उम्मीद-ओ हवस से न हो कुछ लगन। (१०)

कुशा घास पर मृगछाला बिछाये,

फिर उस मृगछाला पे चादर लगाये।

जमाँ उस पे आसन करे एहतकाफ़,

न ऊँची न नीची जगह पाक साफ़। (११)

सकूँ चित्त को दे लौ मुझी से लगाये,

हवास - ओ तखैयाल को काबू में लाये।

जमे अपने आसन पे वो मुस्तकिल,

करे योग को साध कर पाक दिल। (१२)

सरो पुश्त - ओ गरदन झुकाये न वो,

बदन को हिलाये जुलाये न वो।

जमाये नज़र नाक की नोक पर,

निगाहें न भटके इधर और उधर। (१३)

रहे पुर-सकूँ बे-खतर मुस्तकिल,

तज़र्रूद पे कायम हो काबू में दिल।

मेरी जात से लौ लगाये हुए,

मेरे ध्यान में दिल जमाये हुए। (१४)

अगर योग वो यूँ कमाता रहे,

तो मन उस का काबू में आता रहे।

सकूँ आत्मा में समा जायगा,

वही मेरा निरवान पा जायगा। (१५)

न हासिल करे योग बसयार ख़्वार,

न वो जिस का हो भूख से हाल जार।

बहुत सोने वाला भी पाये न योग,

बहुत जागने से भी आये न योग। (१६)

हो योगी कि हर काम में एतदाल,

ग़िज़ा और आराम में एतदाल।

मुनासिब ही जाग और मुनासिब ही ख़्वाब,

मिटाता है योग उस के दर्द - ओ अज़ाब। (१७)

अगर उस के काबू में दायम हो मन,

फ़कत आत्मा ही में कायम हो मन।

रहे लज़्ज़त-ए नफ़्स से दूर दूर,

वो सरशार है योग में बिलजरूर। (१८)

हवा की न हो मौज जुम्बा की रौ,

तो लरज़े कहाँ से शमां रोशन की लौ।

यूंही होगा योगी को हासिल सबात,

ख़्याल उस के बस में तो मन महैव-ए ज़ात। (१९)

जहाँ मन को आये सकूँ - ओ करार,

रियाज़त करे दिल का दूर इन्तशार।

जहाँ मन में हो आत्मा का ज़हूर,

करे मुतमैयन आत्मा का सरूर। (२०)

जहाँ बे-निहायत हो राहत नसीब,

हिस्सों से बईद और ख़िरद के करीब ,

जहाँ हो हक़ीक़त से इन्सां न दूर,

रहे आत्मा में कयाम - ओ सरूर। (२१)

जहाँ उस को मिलने से आये यकीं,

कि दौलत कोई इस से बढ़ कर नहीं।

जहाँ उसमें जम कर वो आ जाये सुख,

कि जुम्बश न दे उस को दुनिया का दुःख। (२२)

जहाँ ग़म है बाकी न कुछ सोग है,

यही योग है हाँ यही योग है।

इसी योग में दिल यकीं से जमाओ,

इसी योग में तुम अक़ीदत दिखाओ। (२३)

ख़यालो की औलाद हिर्स - ओ हवा,

इन्हें यक-कलम दूर करता हुआ।

हवास अपने हर सिम्मत से घेर कर,

दिली ज़ब्त से उन का रुख़ फेर कर। (२४)

जिसे अक्ल पर अपनी हो इख़त्यार,

वो हासिल करे रफ़्ता-रफ़्ता करार।

करे उस का मन आत्मा में कयाम,

न उस को ख़्याल - ए दुई से हो काम। (२५)

मन इन्सां का चंचल है और बेकरार,

रहे दौड़ता भागता बार-बार।

यह भागे तो बाग इस की झट मोड़ दे,

हिफ़ाज़त में फिर रूह की छोड़ दे। (२६)

वो योगी जिसे मन में आये सकूँ,

रजोगुण से दिल जिस का पाये सकूँ।

ख़ुदा से हो वासिल गुनाहों से दूर,

उसी को मुयस्सर हो आला - सरूर। (२७)

जो योगी रहे योग में उस्तवार,

गुनाहों से दामन न हो दाग़दार।

उसी को मिले नेमत-ए बीकराँ,

कि पाये वसाल - ए ख़ुदाये जहाँ। (२८)

अगर योग में नफ़ज़ सरशार है,

तो फिर यह हक़ीक़त नमूदार है।

कि हर शै में है आत्मा की नमूद,

तो हर शै का है आत्मा में वजूद। (२९)

जो हर सिम्मत पाता है मेरा ही नूर,

मुझी में जो हर शै का देखे जहूर।

कभी मुझ से मुंह मोड़ सकता नही,

कभी मैं उसे छोड़ सकता नहीं। (३०)

जो कसरत से वाहदत का देखे समाँ,

जो पूजे मुझे हूँ जो सब में अयाँ।

वो योगी रहे गो किसी ढंग में,

मुझी से हो वासिल वो हर रंग में। (३१)

सुख औरों का समझे जो अपना ही सुख,

दुःख औरों का समझे जो अपना ही दुःख।

जो सब को करे अपने जैसा ख़याल,

सुन अर्जुन कि योगी है वो बाकमाल। (३२)

अर्जुन उवाच --

सकूँ का जो मुझ को सिखाया है योग,

मेरे दिल को भगवान भाया है योग।

बिना इस के लेकिन नहीं मुस्तकिल,

कि चंचल है, चंचल है, चंचल है दिल। (३३)

यह भगवान् ! बेकल है पुरशोर दिल,

कि सरकश है ज़िद्दी है, मुँह ज़ोर दिल।

न काबू में आये किसी हाल में,

हवा बन्द होती नहीं जाल में। (३४)

श्रीभगवानुवाच ---

कहा सुन के भगवान् ने ऐ कवि,

दिल इन्सां का पुरशोर चंचल सही।

है विराग और मश्क में यह कमाल,

दिल आ जाये काबू में कुन्ती के लाल। (३५)

अगर नफ़स पर ज़ब्त कामल नहीं,

तो फिर योग इन्सां को हासिल नहीं।

मगर नफ़स पर हो जिसे इख़त्यार,

मुनासिब वसायल से हो काम-गार। (३६)

अर्जुन उवाच ---

फिर अर्जुन ने पूछा भटकता है जो,

इसी राह में सर पटकता है जो।

अक़ीदत तो है जाँफ़शानी नहीं,

अक़ीदत से पहुँचेगा वो भी कही ?। (३७)

कवि-दस्त ! जो मोह में फँस गया,

राह-ए योग में जो डगमगाता रहा।

तो क्या वो यहाँ और वहाँ से गया,

जो बादल फटा आसमाँ से गया ? । (३८)

करें मेरे इस शक को भगवान् दूर,

तबीयत को हासिल हो उरफॉ का नूर।

कोई दूसरा है जहाँ में कहाँ ,

करे दूर मेरे वहम-ओ गुमाँ। (३९)

श्रीभगवानुवाच ---

सुन ऐ प्यारे अर्जुन वो इन्सान भी,

न दोनों जहाँ में फ़ना हो कभी।

कि दुनिया में जो नेक क़िरदार है,

तबाही में कब वो गिरफ़्तार है। (४०)

यह सच है उसे योग हासिल नहीं,

हो नेकों की दुनिया में जा कर मकीं।

बहुत मुद्दतों में वो ले फिर जनम,

वहाँ हों जहाँ नेकी - ओ जऱ बहम। (४१)

वो हो वरना ऐसे घराने का लाल,

हो योगी जहाँ आक़्ल -ओ बाकमाल।

जनम ऐसा मुश्किल मिले ऐ हबीब,

सआदत यह तो शाज ओ नादर नसीब। (४२)

वो दुनिया में पाए जो ताज़ा हैयात,

हों सब उस में पिछले जनम के सफ़ात।

करे बढ़ के पहले से कस्ब-ए कमाल,

कि तकमील हासिल हो जाए ज़वाल। (४३)

इसी साबका मश्क के जोर से,

वो मक़्सूद की सिम्मत बहता चले।

हुआ योग का इल्म जिस को पसन्द,

वो लिखे से वेदों के जाए बुलन्द। (४४)

किये जा रहा है जो योगी यतन,

तो पापो से हो पाक साफ़ उस का मन।

जनम पर जनम ले के पाये कमाल,

कि हासिल हो आख़िर ख़ुदा का वसाल। (४५)

तपस्वी से आला है योगी की शान,

बड़ी उस की ज्ञानी से भी आन-बान।

हैं कम उस से जो कर्मकाण्डी हैं लोग,

फिर अर्जुन है क्या देर ले तू भी योग। (४६)

वो योगी यकीं जो मुझी पर जमाये,

मुझी में फ़कत आत्मा को लगाये।

जो मेरी परस्तिश में शाग़ल रहे,

वो सब योग वालों में कामिल रहे। (४७)

(छठा अध्याय सम्पूर्ण हुआ)

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