आठवाँ अध्याय : अक्षरब्रह्मयोग
- Sanjay Bhatia
- Jun 25, 2017
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अर्जुन उवाच ---
फिर अर्जुन ने पूछा यह भगवान से,
कि पुरषोत्तम अब मुझ से फरमाइये।
है ब्रह्म अध्यात्म से क्या मुद्दआ,
है कर्म और अधिभूत,अधिदेव क्या ?। (१)
अधियज्ञ है क्या चीज़ बतलाइये,
मकीं तन में है कौन फरमाइये।
जिसे दिल पे काबू है मरते हुए,
मधुकश ! तुम्हें कैसे पहचान ले ?। (२)
श्रीभगवानुवाच --
हैं ब्रह्महस्ती आली वा बे-जवाल,
तो अध्यात्म अशिया की फ़ितरत का हाल।
वो कुदरत हुई जिस से मख़लूक़ सब,
वो है कर्म ख़ल्क-ए जहाँ का सबब। (३)
अधिभूत फ़ानी वजूद-ए जहाँ,
पुरुष है अधिदेव रूह-ओ रवाँ।
अधियज्ञ सुन ऐ फ़ख़र ऐहल-ए वजूद,
मैं खुद हूं कि मेरी है तन में नमूद। (४)
जब इन्सां जहां से गुजरता हुआ,
मेरी ही करे याद मरता हुआ।
तो फिर इस में शक का नहीं एहतमाल,
उसे मर के हासिल हो मेरा वसाल। (५)
जब इन्सां बदन को कहे खैरबाद,
करे आख़री वक्त जिस शै को याद।
तो अर्जुन उसी शै से वासल हो वो,
लगाई थी लौ जिस से हासिल हो वो। (६)
मुझे याद अर्जुन ब-हर रंग कर,
लिये जा मेरा नाम और जंग कर।
फ़िदा मुझ पे कर दानिश-ओ दिल मुदाम,
मेरा वस्ल पायेगा तू लाकलाम। (७)
अगर योग की मश्क हो मुस्तकिल,
किसी ग़ैर का जब हो ख़्वाहा न दिल।
हो पुरनूर आली पुरुष का ख़्याल,
तो हासिल इसी से हो अर्जुन वसाल। (८)
जो करता है याद-ए ख़ुदाय-ए अलीम,
पनाह-ए जहाँ बादशाह-ए कदीम।
जो सूरज-सा पुरनूर जुलमत से दूर,
ख़फ़ी से ख़फ़ी मादराय-ए शऊर। (९)
जो भक्त करे योग से मुस्तकिल,
मरने पे रखता है मजबूत दिल।
प्राण अपने दो अबरुओं जमाये,
तो पुरनूर आली पुरुष को वो पाये। (१०)
सुन अब मुख़तसर मुझ से वो राह-ए योग,
मुजर्रद रहें शोक में जिस के लोग।
जहां बे-ग़र्ज़ एहल-ए संन्यास पाये,
जिसे वेद-दाँ ग़ैर-फ़ानी बताये। (११)
बदन के अगर बन्द सब दर करे,
जो मन है उसे रूह के अन्दर करे।
जमे इस तरह योग से उस का ध्यान,
कि इन्सां के सर में रहें उस के प्राण। (१२)
जिसे 'ॐ' कहते हैं नाम-ए खुदा,
वो इक रुकन का हर्फ़ जपता हुआ।
मेरे ध्यान में जिस का हो इख़ितताम,
मिले उस को मरते ही आली मुकाम। (१३)
सदा मेरा पेहम जिसे ध्यान है,
तो मिलना मेरा उस को आसान है।
मुझे अर्जुन दिल से भुलाता नहीं,
किसी ग़ैर से दिल लगाता नहीं। (१४)
महा-आत्मा मुझ से पा कर वसाल,
रहें पुरसकूँ ले के औज़-ए कमाल।
हलूल-ओ तनासुख न दौर-ए हैयात,
फ़ना-ओ मुसीबत से पाये निजात। (१५)
कि ब्रह्मा की दुनिया तक एहल-ए जहाँ,
तनासुख के चक्कर में हैं बे-गुमाँ।
मगर जिस को हासिल हो मुझ से वसाल,
बरी है तनासुख से कुन्ती के लाल। (१६)
जो हैं वाकफ़-ए राज़-ए लील-ओ निहार,
करें वक्त ब्रह्मा का ऐसे शुमार।
हज़ार अपने युग हों तो एक उस का दिन,
हजार अपने युग की फिर इक रात गिन। (१७)
हो ब्रह्मा के दिन जब सहर की नमूद,
तो बातन से जाहिर हो बज़्म-ए शहूद।
मगर जिस घड़ी आये ब्रह्मा की रात,
तो बातन में छिप जाये कुल कायनात। (१८)
यह मख़लूक़ पैदा जो हो बार-बार,
हो गुम रात पड़ने पे बे-इख्तयार।
सुन अर्जुन जो ब्रह्मा का दिन हो अयाँ,
हो फिर मौज-ए-हस्ती का दरिया रवाँ। (१९)
परे ग़ैब से भी है इक ज़ात-ए ग़ैब,
वो हस्ती फ़ना का नहीं जिस में ऐब।
किसी की न कुछ बात बाकी रहे,
फ़कत इक वही जात बाकी रहे। (२०)
वो हस्ती जो बातिन है और बे-ज़वाल,
करें उस की मंज़िल को आला ख़याल।
पहुंच कर जहां से न लौटे मुदाम,
वो ही है वो ही मेरा आली मुकाम। (२१)
यह दुनिया है जिस की बसाई हुई,
हर इक शय है जिस में समाई हुई।
अगर चाहे तू उस खुदा का वसाल,
रख उस की मुहब्बत का दिल में ख़याल। (२२)
सुन ऐ नस्ल-ए भारत के सरताज सुन,
बताता हूँ अब वक़्त के तुझ को गुन।
कि कब मर के लौट आये योगी यहीं,
वो कब मर के कालब बदलते नहीं। (२३)
अगर दिन हो या मौसम-ए नार-ओ नूर,
उजाले की राते हों माह का जहूर।
हो शश-माह सूरज का दौर-ए शुमाल,
मरे उन में आरफ़ तो पाये वसाल। (२४)
अन्धेरा हो पाख और धुन्धलका हो खूब,
हो शश-माह सूरज का दौर-ए जनूब।
कि हो रात का वक़्त जब जान जाये,
तो योगी यहीं चाँद से लौट आये। (२५)
अन्धेरा कभी हो उजाला कभी,
सदा से जगत के हैं रस्ते यही।
उजाले में जब जाये वापस न आये,
अन्धेरे में जब जाये वापस न आये। (२६)
जो इन रास्तों से न अन्जान हो,
वो योगी परेशाँ न हैरान हो।
सुन अर्जुन है जब तक तेरे दम में दम,
तू रह योग में अपने साबत कदम। (२७)
मिले वेद के पाठ करने से पुन,
हैं बेशक बहुत दान यज्ञ तप के गुण।
मगर उन से बाला है योगी की जात,
अज़ल से वो पाये मकाम-ए निजात। (२८)
श्रीकृष्णार्जुनसंवाद अक्षरब्रह्मयोग समाप्त हुआ
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